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Thursday, March 20, 2008

मनावन

बाबू दयाशंकर उन लोगों में थे जिन्हें उस वक्त तक सोहबत का मजा नहीं मिलता जब तक कि वह प्रेमिका की जबान की तेजी का मजा न उठायें। रूठे हुए को मनाने में उन्हें बड़ा आनन्द मिलता फिरी हुई निगाहें कभी-कभी मुहब्बत के नशे की मतवाली ऑंखें से भी ज्यादा मोहक जान पड़तीं। आकर्षक लगती। झगड़ों में मिलाप से ज्यादा मजा आता। पानी में हलके-हलके झकोले कैसा समॉँ दिखा जाते हैं। जब तक दरिया में धीमी-धीमी हलचल न हो सैर का लुत्फ नहीं।
अगर बाबू दयाशंकर को इन दिलचस्पियों के कम मौके मिलते थे तो यह उनका कसूर न था। गिरिजा स्वभाव से बहुत नेक और गम्भीर थी, तो भी चूंकि उनका कसूर न था। गिरिजा स्वभाव से बहुत नेक और गम्भीर थी, तो भी चूंकि उसे अपने पति की रुचि का अनुभव हो चुका था इसलिए वह कभी-कभी अपनी तबियत के खिलाफ सिर्फ उनकी खातिर से उनसे रूठ जाती थी मगर यह बे-नींव की दीवार हवा का एक झोंका भी न सम्हाल सकती। उसकी ऑंखे, उसके होंठ उसका दिल यह बहुरूपिये का खेल ज्यादा देर तक न चला सकते। आसमान पर घटायें आतीं मगर सावन की नहीं, कुआर की। वह ड़रती, कहीं ऐसा न हो कि हँसी-हँसी से रोना आ जाय। आपस की बदमजगी के ख्याल से उसकी जान निकल जाती थी। मगर इन मौकों पर बाबू साहब को जैसी-जैसी रिझाने वाली बातें सूझतीं वह काश विद्यार्थी जीवन में सूझी होतीं तो वह कई साल तक कानून से सिर मारने के बाद भी मामूली क्लर्क न रहते।



दयाशंकर को कौमी जलसों से बहुत दिलचस्पी थी। इस दिलचस्पी की बुनियाद उसी जमाने में पड़ी जब वह कानून की दरगाह के मुजाविर थे और वह अक तक कायम थी। रुपयों की थैली गायब हो गई थी मगर कंधों में दर्द मौजूद था। इस साल कांफ्रेंस का जलसा सतारा में होने वाला था। नियत तारीख से एक रोज पहले बाबू साहब सतारा को रवाना हुए। सफर की तैयारियों में इतने व्यस्त थे कि गिरिजा से बातचीत करने की भी फुर्सत न मिली थी। आनेवाली खुशियों की उम्मीद उस क्षणिक वियोग के खयाल के ऊपर भारी थी।
कैसा शहर होगा! बड़ी तारीफ सुनते हैं। दकन सौन्दर्य और संपदा की खान है। खूब सैर रहेगी। हजरत तो इन दिल को खुश करनेवाले ख्यालों में मस्त थे और गिरिजा ऑंखों में आंसू भरे अपने दरवाजे पर खड़ी यह कैफियल देख रही थी और ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि इन्हें खैरितय से लाना। वह खुद एक हफ्ता कैसे काटेगी, यह ख्याल बहुत ही कष्ट देनेवाला था।
गिरिजा इन विचारों में व्यस्त थी दयाशंकर सफर की तैयारियों में। यहॉँ तक कि सब तैयारियॉँ पूरी हो गई। इक्का दरवाजे पर आ गया। बिसतर और ट्रंक उस पर रख दिये और तब विदाई भेंट की बातें होने लगीं। दयाशंकर गिरिजा के सामने आए और मुस्कराकर बोले-अब जाता हूँ।
गिरिजा के कलेजे में एक बर्छी-सी लगी। बरबस जी चाहा कि उनके सीने से लिपटकर रोऊँ। ऑंसुओं की एक बाढ़-सी ऑंखें में आती हुई मालूम हुई मगर जब्त करके बोली-जाने को कैसे कहूँ, क्या वक्त आ गया?
इयाशंकर-हॉँ, बल्कि देर हो रही है।
गिरिजा-मंगल की शाम को गाड़ी से आओगे न?
दयाशंकर-जरूर, किसी तरह नहीं रूक सकता। तुम सिर्फ उसी दिन मेरा इंतजार करना।
गिरिजा-ऐसा न हो भूल जाओ। सतारा बहुत अच्छा शहर है।
दयाशंकर-(हँसकर) वह स्वर्ग ही क्यों न हो, मंगल को यहॉँ जरूर आ जाऊँगा। दिल बराबर यहीं रहेगा। तुम जरा भी न घबराना।
यह कहकर गिरिजा को गले लगा लिया और मुस्कराते हुए बाहर निकल आए। इक्का रवाना हो गया। गिरिजा पलंग पर बैठ गई और खूब रोयी। मगर इस वियोग के दुख, ऑंसुओं की बाढ़, अकेलेपन के दर्द और तरह-तरह के भावों की भीड़ के साथ एक और ख्याल दिल में बैठा हुआ था जिसे वह बार-बार हटाने की कोशिश करती थी-क्या इनके पहलू में दिल नहीं है! या है तो उस पर उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है? वह मुस्कराहट जो विदा होते वक्त दयाशंकर के चेहरे र लग रही थी, गिरिजा की समझ में नहीं आती थी।



सतारा में बड़ी धूधम थी। दयाशंकर गाड़ी से उतरे तो वर्दीपोश वालंटियरों ने उनका स्वागात किया। एक फिटन उनके लिए तैयार खड़ी थी। उस पर बैठकर वह कांफ्रेंस पंड़ाल की तरफ चलें दोनों तरफ झंडियॉँ लहरा रही थीं। दरवाजे पर बन्दवारें लटक रही थी। औरतें अपने झरोखों से और मर्द बरामदों में खड़े हो-होकर खुशी से तालियॉँ बाजते थे। इस शान-शौकत के साथ वह पंड़ाल में पहुँचे और एक खूबसूरत खेमे में उतरे। यहॉँ सब तरह की सुविधाऍं एकत्र थीं, दस बजे कांफ्रेंस शुरू हुई। वक्ता अपनी-अपनी भाषा के जलवे दिखाने लगे। किसी के हँसी-दिल्लगी से भरे हुए चुटकुलों पर वाह-वाह की धूम मच गई, किसी की आग बरसानेवाले तकरीर ने दिलों में जोश की एक तहर-सी पेछा कर दी। विद्वत्तापूर्ण भाषणों के मुकाबले में हँसी-दिल्लगी और बात कहने की खुबी को लोगों ने ज्यादा पसन्द किया। श्रोताओं को उन भाषणों में थियेटर के गीतों का-सा आनन्द आता था।
कई दिन तक यही हालत रही और भाषणों की दृश्टि से कांफ्रेंस को शानदार कामयाबी हासिल हुई। आखिरकार मंगल का दिन आया। बाबू साहब वापसी की तैयारियॉँ करने लगे। मगर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि आज उन्हें मजबूरन ठहरना पड़ा। बम्बई और यू.पी. के ड़ेलीगेटों में एक हाकी मैच ठहर गई। बाबू दयाशंकर हाकी के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। वह भी टीम में दाखिल कर लिये गये थे। उन्होंने बहुत कोशिश की कि अपना गला छुड़ा लूँ मगर दोस्तों ने इनकी आनाकानी पर बिलकुल ध्यान न दिया। साहब, जो ज्यादा बेतकल्लुफ थे, बोल-आखिर तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है? तुम्हारा दफ्तर अभी हफ्ता भर बंद है। बीवी साहबा की जाराजगी के सिवा मुझे इस जल्दबाजी का कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता। दयाशंकर ने जब देखा कि जल्द ही मुझपर बीवी का गुलाम होने की फबतियॉँ कसी जाने वाली हैं, जिससे ज्यादा अपमानजनक बात मर्द की शान में कोई दूसरी नहीं कही जा सकती, तो उन्होंने बचाव की कोई सूरत न देखकर वापसी मुल्तवी कर दी। और हाकी में शरीक हो गए। मगर दिल में यह पक्का इरादा कर लिया कि शाम की गाड़ी से जरूर चले जायेंगे, फिर चाहे कोई बीवी का गुलाम नहीं, बीवी के गुलाम का बाप कहे, एक न मानेंगे।
खैर, पांच बजे खेल शुनू हुआ। दोनों तरफ के खिलाड़ी बहुत तेज थे जिन्होने हाकी खेलने के सिवा जिन्दगी में और कोई काम ही नहीं किया। खेल बड़े जोश और सरगर्मी से होने लगा। कई हजार तमाशाई जमा थे। उनकी तालियॉँ और बढ़ावे खिलाड़ियों पर मारू बाजे का काम कर रहे थे और गेंद किसी अभागे की किस्मत की तरह इधर-उधर ठोकरें खाती फिरती थी। दयाशंकर के हाथों की तेजी और सफाई, उनकी पकड़ और बेऐब निशानेबाजी पर लोग हैरान थे, यहॉँ तक कि जब वक्त खत्म होने में सिर्फ एक़ मिनट बाकी रह गया था और दोनों तरफ के लोग हिम्मतें हार चुके थे तो दयाशंकर ने गेंद लिया और बिजली की तरह विरोधी पक्ष के गोल पर पहुँच गये। एक पटाखें की आवाज हुई, चारों तरफ से गोल का नारा बुलन्द हुआ! इलाहाबाद की जीत हुई और इस जीत का सेहरा दयाशंकर के सिर था-जिसका नतीजा यह हुआ कि बेचारे दयाशंकर को उस वक्त भी रुकना पड़ा और सिर्फ इतना ही नहीं, सतारा अमेचर क्लब की तरफ से इस जीत की बधाई में एक नाटक खेलने का कोई प्रस्ताव हुआ जिसे बुध के रोज भी रवाना होने की कोई उम्मीद बाकी न रही। दयाशंकर ने दिल में बहुत पेचोताब खाया मगर जबान से क्या कहते! बीवी का गूलाम कहलाने का ड़र जबान बन्द किये हुए था। हालॉँकि उनका दिल कह रहा था कि अब की देवी रूठेंगी तो सिर्फ खुशामदों से न मानेंगी।



बाबू दयाशंकर वादे के रोज के तीन दिन बाद मकान पर पहुँचे। सतारा से गिरिजा के लिए कई अनूठे तोहफे लाये थे। मगर उसने इन चीजों को कुछ इस तरह देखा कि जैसे उनसे उसका जी भर गया है। उसका चेहरा उतरा हुआ था और होंठ सूखे थे। दो दिन से उसने कुछ नहीं खाया था। अगर चलते वक्त दयाशंकर की आंख से आँसू की चन्द बूंदें टपक पड़ी होतीं या कम से कम चेहरा कुछ उदास और आवाज कुछ भारी हो गयी होती तो शायद गिरिजा उनसे न रूठती। आँसुओं की चन्द बूँदें उसके दिल में इस खयाल को तरो-ताजा रखतीं कि उनके न आने का कारण चाहे ओर कुछ हो निष्ठुरता हरगिज नहीं है। शायद हाल पूछने के लिए उसने तार दिया होता और अपने पति को अपने सामने खैरियत से देखकर वह बरबस उनके सीने में जा चिमटती और देवताओं की कृतज्ञ होती। मगर आँखों की वह बेमौका कंजूसी और चेहरे की वह निष्ठुर मुसकान इस वक्त उसके पहलू में खटक रही थी। दिल में खयाल जम गया था कि मैं चाहे इनके लिए मर ही मिटूँ मगर इन्हें मेरी परवाह नहीं है। दोस्तों का आग्रह और जिद केवल बहाना है। कोई जबरदस्ती किसी को रोक नहीं सकता। खूब! मैं तो रात की रात बैठकर काटूँ और वहॉँ मजे उड़ाये जाऍं!
बाबू दयाशंकर को रूठों के मनाने में विषेश दक्षता थी और इस मौके पर उन्होंने कोई बात, कोई कोशिश उठा नहीं रखी। तोहफे तो लाए थे मगर उनका जादू न चला। तब हाथ जोड़कर एक पैर से खड़े हुए, गुदगुदाया, तलुवे सहलाये, कुछ शोखी और शरारत की। दस बजे तक इन्हीं सब बातों में लगे रहे। इसके बाद खाने का वक्त आया। आज उन्होंने रूखी रोटियॉँ बड़ें शौक से और मामूली से कुछ ज्यादा खायीं-गिरिजा के हाथ से आज हफ्ते भर बाद रोटियॉँ नसीब हुई हैं, सतारे में रोटियों को तरस गयें पूडियॉँ खाते-खाते आँतों में बायगोले पड़ गये। यकीन मानो गिरिजन, वहॉँ कोई आराम न था, न कोई सैर, न कोई लुत्फ। सैर और लुत्फ तो महज अपने दिल की कैफियत पर मुनहसर है। बेफिक्री हो तो चटियल मैदान में बाग का मजा आता है और तबियत को कोई फिक्र हो तो बाग वीराने से भी ज्यादा उजाड़ मालूम होता है। कम्बख्त दिल तो हरदम यहीं धरा रहता था, वहॉँ मजा क्या खाक आता। तुम चाहे इन बातों को केवल बनावट समझ लो, क्योंकि मैं तुम्हारे सामने दोषी हूँ और तुम्हें अधिकार है कि मुझे झूठा, मक्कार, दगाबाज, वेवफा, बात बनानेवाला जो चाहे समझ लो, मगर सच्चाई यही है जो मैं कह रहा हूँ। मैं जो अपना वादा पूरा नहीं कर सका, उसका कारण दोस्तों की जिद थी।
दयाशंकर ने रोटियों की खूब तारीफ की क्योंकि पहले कई बार यह तरकीब फायदेमन्द साबित हुई थी, मगर आज यह मन्त्र भी कारगर न हुआ। गिरिजा के तेवर बदले ही रहे।
तीसरे पहर दयाशंकर गिरिजा के कमरे में गये और पंखा झलने लगे; यहॉँ तक कि गिरिजा झुँझलाकर बोल उठी-अपनी नाजबरदारियॉँ अपने ही पास रखिये। मैंने हुजूर से भर पाया। मैं तुम्हें पहचान गयी, अब धोखा नही खाने की। मुझे न मालूम था कि मुझसे आप यों दगा करेंगे। गरज जिन शब्दों में बेवफाइयों और निष्ठुरताओं की शिकायतें हुआ करती हैं वह सब इस वक्त गिरिजा ने खर्च कर डाले।



शाम हुई। शहर की गलियों में मोतिये और बेले की लपटें आने लगीं। सड़कों पर छिड़काव होने लगा और मिट्टी की सोंधी खुशबू उड़ने लगी। गिरिजा खाना पकाने जा रही थी कि इतने में उसके दरवाजे पर इक्का आकर रूका और उसमें से एक औरत उतर पड़ी। उसके साथ एक महरी थी उसने ऊपर आकर गिरिजा से कहा—बहू जी, आपकी सखी आ रही हैं।
यह सखी पड़ोस में रहनेवाली अहलमद साहब की बीवी थीं। अहलमद साहब बूढ़े आदमी थे। उनकी पहली शादी उस वक्त हुई थी, जब दूध के दॉँत न टूटे थे। दूसरी शादी संयोग से उस जमाने में हुई जब मुँह में एक दॉँत भी बाकी न था। लोगों ने बहुत समझाया कि अब आप बूढ़े हुए, शादी न कीजिए, ईश्वर ने लड़के दिये हैं, बहुएँ हैं, आपको किसी बात की तकलीफ नहीं हो सकती। मगर अहलमद साहब खुद बुढ्डे और दुनिया देखे हुए आदमी थे, इन शुभचिंतकों की सलाहों का जवाब व्यावहारिक उदाहरणों से दिया करते थे—क्यों, क्या मौत को बूढ़ों से कोई दुश्मनी है? बूढ़े गरीब उसका क्या बिगाड़ते हैं? हम बाग में जाते हैं तो मुरझाये हुए फूल नहीं तोड़ते, हमारी आँखें तरो-ताजा, हरे-भरे खूबसूरत फूलों पर पड़ती हैं। कभी-कभी गजरे वगैरह बनाने के लिए कलियॉँ भी तोड़ ली जाती हैं। यही हालत मौत की है। क्या यमराज को इतनी समझ भी नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जवान और बच्चे बूढ़ों से ज्यादा मरते हैं। मैं अभी ज्यों का त्यो हूँ, मेरे तीन जवान भाई, पॉँच बहनें, बहनों के पति, तीनों भावजें, चार बेटे, पॉँच बेटियॉँ, कई भतीजे, सब मेरी आँखों के सामने इस दुनिया से चल बसे। मौत सबको निगल गई मगर मेरा बाल बॉँका न कर सकी। यह गलत, बिलकुल गलत है कि बूढ़े आदमी जल्द मर जाते हैं। और असल बात तो यह है कि जबान बीवी की जरूरत बुढ़ापे में ही होती है। बहुएँ मेरे सामने निकलना चाहें और न निकल सकती हैं, भावजें खुद बूढ़ी हुईं, छोटे भाई की बीवी मेरी परछाईं भी नही देख सकती है, बहनें अपने-अपने घर हैं, लड़के सीधे मुंह बात नहीं करते। मैं ठहरा बूढ़ा, बीमार पडूँ तो पास कौन फटके, एक लोटा पानी कौन दे, देखूँ किसकी आँख से, जी कैसे बहलाऊँ? क्या आत्महत्या कर लूँ। या कहीं डूब मरूँ? इन दलीलों के मुकाबिले में किसी की जबान न खुलती थी।
गरज इस नयी अहलमदिन और गिरिजा में कुछ बहनापा सा हो गया था, कभी-कभी उससे मिलने आ जाया करती थी। अपने भाग्य पर सन्तोष करने वाली स्त्री थी, कभी शिकायत या रंज की एक बात जबान से न निकालती। एक बार गिरिजा ने मजाक में कहा था कि बूढ़े और जवान का मेल अच्छा नहीं होता। इस पर वह नाराज हो गयी और कई दिन तक न आयी। गिरिजा महरी को देखते ही फौरन ऑंगन में निकल आयी और गो उस इस वक्त मेहमान का आना नागवारा गुजरा मगर महरी से बोली-बहन, अच्छी आयीं, दो घड़ी दिल बहलेगा।
जरा देर में अहलमदिन साहब गहने से लदी हुई, घूंघट निकाले, छमछम करती हुई आँगन मे आकर खड़ी हो गईं। गिरिजा ने करीब आकर कहा-वाह सखी, आज तो तुम दुलहिन बनी हो। मुझसे पर्दा करने लगी हो क्या? यह कहकर उसने घूंघट हटा दिया और सखी का मुंह देखते ही चौंककर एक कदम पीछे हट गई। दयाशंकर ने जोर से कहकहा लगाया और गिरिजा को सीने से लिपटा लिया और विनती के स्वर में बोले-गिरिजन, अब मान जाओ, ऐसी खता फिर कभी न होगी। मगर गिरिजन अलग हट गई और रुखाई से बोली-तुम्हारा बहुरूप बहुत देख चुकी, अब तुम्हारा असली रूप देखना चाहती हूँ।



दयाशंकर प्रेम-नदी की हलकी-हलकी लहरों का आनन्द तो जरूर उठाना चाहते थे मगर तूफान से उनकी तबियत भी उतना ही घबराती थी जितना गिरिजा की, बल्कि शायद उससे भी ज्यादा। हृदय-पविर्तन के जितने मंत्र उन्हें याद थे वह सब उन्होंने पढ़े और उन्हें कारगर न होते देखकर आखिर उनकी तबियत को भी उलझन होने लगी। यह वे मानते थे कि बेशक मुझसे खता हुई है मगर खता उनके खयाल में ऐसी दिल जलानेवाली सजाओं के काबिल न थी। मनाने की कला में वह जरूर सिद्धहस्त थे मगर इस मौके पर उनकी अक्ल ने कुछ काम न दिया। उन्हें ऐसा कोई जादू नजर नहीं आता था जो उठती हुई काली घटाओं और जोर पकड़ते हुए झोंकों को रोक दे। कुछ देर तक वह उन्हीं ख्यालों में खामोश खड़े रहे और फिर बोले-आखिर गिरिजन, अब तुम क्या चाहती हो।
गिरिजा ने अत्यन्त सहानुभूति शून्य बेपरवाही से मुँह फेरकर कहा-कुछ नहीं।
दयाशंकर-नहीं, कुछ तो जरूर चाहती हो वर्ना चार दिन तक बिना दाना-पानी के रहने का क्या मतलब! क्या मुझ पर जान देने की ठानी है? अगर यही फैसला है तो बेहतर है तुम यों जान दो और मैं कत्ल के जुर्म में फॉँसी पाऊँ, किस्सा तमाम हो जाये। अच्छा होगा, बहुत अच्छा होगा, दुनिया की परेशानियों से छुटकारा हो जाएगा।
यह मन्तर बिलकुल बेअसर न रहा। गिरिजा आँखों में आँसू भरकर बोली-तुम खामखाह मुझसे झगड़ना चाहते हो और मुझे झगड़े से नफरत है। मैं तुमसे न बोलती हूँ और न चाहती हूँ कि तुम मुझसे बोलने की तकलीफ गवारा करो। क्या आज शहर में कहीं नाच नहीं होता, कहीं हाकी मैच नहीं है, कहीं शतरंज नहीं बिछी हुई है। वहीं तुम्हारी तबियत जमती है, आप वहीं जाइए, मुझे अपने हाल पर रहने दीजिए मैं बहुत अच्छी तरह हूँ।
दयाशंकर करुण स्वर में बोले-क्या तुमने मुझे ऐसा बेवफा समझ लिया है?
गिरिजा-जी हॉँ, मेरा तो यही तजुर्बा है।
दयाशंकर-तो तुम सख्त गलती पर हो। अगर तुम्हारा यही ख्याल है तो मैं कह सकता हूँ कि औरतों की अन्तर्दृष्टि के बारे में जितनी बातें सुनी हैं वह सब गलत हैं। गिरजन, मेरे भी दिल है...
गिरिजा ने बात काटकर कहा-सच, आपके भी दिल है यह आज नयी बात मालूम हुईं।
दयाशंकर कुछ झेंपकर बोले-खैर जैसा तुम समझों। मेरे दिल न सही, मेर जिगर न सही, दिमाग तो साफ जाहिर है कि ईश्वर ने मुझे नहीं दिया वर्ना वकालत में फेल क्यों होता? गोया मेरे शरीर में सिर्फ पेट है, मैं सिर्फ खाना जानता हूँ और सचमुच है भी ऐसा ही, तुमने मुझे कभी फाका करते नहीं देखा। तुमने कई बार दिन-दिन भर कुछ नहीं खाया है, मैं पेट भरने से कभी बाज नहीं आया। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ है कि दिल और जिगर जिस कोशिश में असफल रहे वह इसी पेट ने पूरी कर दिखाई या यों कहों कि कई बार इसी पेट ने दिल और दिमाग और जिगर का काम कर दिखाया है और मुझे अपने इस अजीब पेट पर कुछ गर्व होने लगा था मगर अब मालूम हुआ कि मेरे पेट की अजीब पेट पर कुछ गर्व होने लगा था मगर अब मालूम हुआ कि मेरे पेट की बेहयाइयॉँ लोगों को बुरी मालूम होती है...इस वक्त मेरा खाना न बने। मैं कुछ न खाऊंगा।
गिरिजा ने पति की तरफ देखा, चेहरे पर हलकी-सी मुस्कराहट थी, वह यह कर रही थी कि यह आखिरी बात तुम्हें ज्यादा सम्हलकर कहनी चाहिए थी। गिरिजा और औरतों की तरह यह भूल जाती थी कि मर्दों की आत्मा को भी कष्ट हो सकता है। उसके खयाल में कष्ट का मतलब शारीरिक कष्ट था। उसने दयाशंकर के साथ और चाहे जो रियायत की हो, खिलाने-पिलाने में उसने कभी भी रियायत नहीं की और जब तक खाने की दैनिक मात्रा उनके पेट में पहुँचती जाय उसे उनकी तरफ से ज्यादा अन्देशा नहीं होता था। हजम करना दयाशंकर का काम था। सच पूछिये तो गिरिजा ही की सख्यितों ने उन्हें हाकी का शौक दिलाया वर्ना अपने और सैकड़ों भाइयों की तरह उन्हें दफ्तर से आकर हुक्के और शतरंज से ज्यादा मनोरंजन होता था। गिरिजा ने यह धमकी सुनी तो त्योरियां चढ़ाकर बोली-अच्छी बात है, न बनेगा।
दयाशंकर दिल में कुछ झेंप-से गये। उन्हें इस बेरहम जवाब की उम्मीद न थी। अपने कमरे मे जाकर अखबार पढ़ने लगे। इधर गिरिजा हमेशा की तरह खाना पकाने में लग गई। दयाशंकर का दिल इतना टूट गया था कि उन्हें खयाल भी न था कि गिरिजा खाना पका रही होगी। इसलिए जब नौ बजे के करीब उसने आकर कहा कि चलो खाना खा लो तो वह ताज्जुब से चौंक पड़े मगर यह यकीन आ गया कि मैंने बाजी मार ली। जी हरा हुआ, फिर भी ऊपर से रुखाई से कहा-मैंने तो तुमसे कह दिया था कि आज कुछ न खाऊँगा।
गिरिजा-चलो थोड़ा-सा खा लो।
दयाशंकर-मुझे जरा भी भूख नहीं है।
गिरिजा-क्यों? आज भूख नहीं लगी?
दयाशंकर-तुम्हें तीन दिन से भूख क्यों नहीं लगी?
गिरिजा-मुझे तो इस वजह से नहीं लगी कि तुमने मेरे दिल को चोट पहुँचाई थी।
दयाशंकर-मुझे भी इस वजह से नहीं लगी कि तुमने मुझे तकलीफ दी है।
दयाशंकर ने रुखाई के साथ यह बातें कहीं और अब गिरिजा उन्हें मनाने लगी। फौरन पॉँसा पलट गया। अभी एक ही क्षण पहले वह उसकी खुशामदें कर रहे थे, मुजरिम की तरह उसके सामने हाथ बॉँधे खड़े, गिड़गिड़ा रहे थे, मिन्नतें करते थे और अब बाजी पलटी हुई थी, मुजरिम इन्साफ की मसनद पर बैठा हुआ था। मुहब्बत की राहें मकड़ी के जालों से भी पेचीदा हैं।
दयाशंकर ने दिन में प्रतिज्ञा की थी कि मैं भी इसे इतना ही हैरान करूँगा जितना इसने मुझे किया है और थोड़ी देर तक वह योगियों की तरह स्थिरता के साथ बैठे रहे। गिरिजा न उन्हें गुदगुदाया, तलुवे खुजलाये, उनके बालो में कंघी की, कितनी ही लुभाने वाली अदाएँ खर्च कीं मगर असर न हुआ। तब उसने अपनी दोनों बॉँहें उनकी गर्दन में ड़ाल दीं और याचना और प्रेम से भरी हुई आँखें उठाकर बोली-चलो, मेरी कसम, खा लो।
फूस की बॉँध बह गई। दयाशंकर ने गिरिजा को गले से लगा लिया। उसके भोलेपन और भावों की सरलता ने उनके दिल पर एक अजीब दर्दनाक असर पेदा किया। उनकी आँखे भी गीली हो गयीं। आह, मैं कैसा जालिम हूँ, मेरी बेवफाइयों ने इसे कितना रुलाया है, तीन दिन तक उसके आँसू नहीं थमे, आँखे नहीं झपकीं, तीन दिन तक इसने दाने की सूरत नहीं देखी मगर मेरे एक जरा-से इनकार ने, झूठे नकली इनकार ने, चमत्कार कर दिखाया। कैसा कोमल हृदय है! गुलाब की पंखुड़ी की तरह, जो मुरझा जाती है मगर मैली नहीं होती। कहॉँ मेरा ओछापन, खुदगर्जी और कहॉँ यह बेखुदी, यह त्यागा, यह साहस।
दयाशंकर के सीने से लिपटी हुई गिरिजा उस वक्त अपने प्रबल आकर्षण से अनके दिल को खींचे लेती थी। उसने जीती हुई बाजी हारकर आज अपने पति के दिल पर कब्जा पा लिया। इतनी जबर्दस्त जीत उसे कभी न हुई थी। आज दयाशंकर को मुहब्बत और भोलेपन की इस मूरत पर जितना गर्व था उसका अनुमान लगाना कठिन है। जरा देर में वह उठ खड़े हुए और बोले-एक शर्त पर चलूँगा।
गिरिजा-क्या?
दयाशंकर-अब कभी मत रूठना।
गिरिजा-यह तो टेढ़ी शर्त है मगर...मंजूर है।
दो-तीन कदम चलने के बाद गिरिजा ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोली-तुम्हें भी मेरी एक शर्त माननी पड़ेगी।
दयाशंकर-मैं समझ गया। तुमसे सच कहता हूँ, अब ऐसा न होगा।
दयाशंकर ने आज गिरिजा को भी अपने साथ खिलाया। वह बहुत लजायी, बहुत हीले किये, कोई सुनेगा तो क्या कहेगा, यह तुम्हें क्या हो गया है। मगर दयाशंकर ने एक न मानी और कई कौर गिरिजा को अपने हाथ से खिलाये और हर बार अपनी मुहब्बत का बेदर्दी के साथ मुआवजा लिया।
खाते-खाते उन्होंने हँसकर गिरिजा से कहा-मुझे न मालूम था कि तुम्हें मनाना इतना आसान है।
गिरिजा ने नीची निगाहों से देखा और मुस्करायी, मगर मुँह से कुछ न बोली।
--उर्दू ‘प्रेम पचीसी’ से

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