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Tuesday, March 25, 2008

राजहठ

दशहरे के दिन थे, अचलगढ़ में उत्सव की तैयारियॉँ हो रही थीं। दरबारे आम में राज्य के मंत्रियों के स्थान पर अप्सराऍं शोभायमान थीं। धर्मशालों और सरायों में घोड़े हिनहिना रहे थे। रियासत के नौकर, क्या छोटे, क्या बड़े, रसद पहुँचाने के बहाने से दरबारे  आम में जमे रहते थे। किसी तरह हटाये न हटते थे। दरबारे खास में पंडित और पुजारी और महन्त लोग आसन जमाए पाठ करते हुए नजर आते थे। वहॉँ किसी राज्य के कर्मचारी की शकल न दिखायी देती थी। घी और पूजा की सामग्री न होने के कारण सुबह की पूजा शाम को होती थी। रसद न मिलने की वजह से पंडित लोग हवन के घी और मेवों के भोग के अग्निकुंड में डालते थे। दरबारे आम में अंग्रेजी प्रबन्ध था और दरबारे खास में राज्य का।
राजा देवमल बड़े हौसलेमन्द रईस थे। इस वार्षिक आनन्दोत्सव में वह जी खोलकर रुपया खर्च करते। जिन दिनों अकाल पड़ा, राज्य के आधे आदमी भूखों तड़पकर मर गए। बुखार, हैजा और प्लेग में हजारों आदमी हर साल मृत्यु का ग्रास बन जाते थे। राज्य निर्धन था इसलिए न वहॉँ पाठशालाऍं थीं, न चिकित्सालय, न सड़कें। बरसात में रनिवास दलदल हो जाता और अँधेरी रातों में सरेशाम से घरों के दरवाजे बन्द हो जाते। अँधेरी सड़कों पर चलना जान जोखिम था। यह सब और इनसे भी ज्यादा कष्टप्रद बातें स्वीकार थीं मगर यह कठिन था, असम्भव था कि दुर्गा देवी का वार्षिक आनन्दोत्सव न हो। इससे राज्य की शान बट्टा लगने का भय था। राज्य मिट जाए, महलों की ईटें बिक जाऍं मगर यह उत्सव जरुर हो। आस पास के राजे-रईस आमंत्रित होते, उनके शामियानों से मीलों तक संगमरमर का एक शहर बस जाता, हफ्तों तक खूब चहल-पहल धूम-धाम रहती। इसी की बदौलत अचलगढ़ का नाम अटलगढ़ हो गया था।



मगर कुंवर इन्दरमल को राजा साहब की इन मस्ताना कार्रवाइयों में बिलकुल आस्था न थी। वह प्रकृति से एक बहुत गम्भीर और सीधासादा नवयुवक था। यों गजब का दिलेर, मौत के सामने भी ताल ठोंककर उतर पड़े मगर उसकी बहादुरी खून की प्यास से पाक थी। उसके वार बिना पर की चिड़ियों या बेजबान जानवरों पर नहीं होते थे। उसकी तलवार कमजोरों पर नहीं उठती थी। गरीबों की हिमायत, अनाथों की सिफारिशें, निर्धनों की सहायता और भाग्य के मारे हुओं के घाव की मरहम-पट्टी इन कामों से उसकी आत्मा को सुख मिलता था। दो साल हुए वह इंदौर कालेज से ऊँची शिक्षा पाकर लौटा था और तब से उसका यह जोश असाधारण रुप में बढ़ा हुआ था, इतना कि वह साधारण  समझदारी की सीमाओं को लाँघ  गया था, चौबीस साल का लम्बा-तड़ंगा हैकल जवान, धन ऐश्वर्य के बीच पला हुआ, जिसे चिन्ताओं की कभी हवा तक न लगी, अगर रुलाया तो हँसी ने। वह ऐसा नेक हो, उसके मर्दाना चेहरे पर चिन्तल को पीलापन और झुर्रियॉँ नजर आयें यह एक असाधारण बात थी। उत्सव का शुभ दिन पास आ पहुँचा था, सिर्फ चार दिन बाकी थे। उत्सव का प्रबन्ध पूरा हो चुका था, सिर्फ अगर कसर थी तो कहीं-कहीं दोबारा नजर डाल लेने की। तीसरे पहर का वक्त था, राजा साहब रनिवास में बैठे हुए कुछ चुनी हुई अप्सराओं का गाना सुन रहे थे। उनकी सुरीली तानों से जो खुशी हो रही थी; उससे कहीं ज्यादा खुशी यह सोचकर हो रही थी कि यह तराने पोलिटिकल एजेण्ट को भड़का देंगे। वह ऑंखें बन्द करके सुनेगा और खुशी के मारे उछल-उछल पड़ेगा।
इस विचार से जो प्रसन्नता होती थी वह तानसेन की तानों में भी नहीं हो सकती थी। आह, उसकी जबान से अनजाने ही, ‘वाह-वाह’ निकल पड़ेगी। अजब नहीं कि उठकर मुझसे हाथ मिलाये और मेरे चुनाव की तारीफ करें इतने में कुंवर इंदरमल बहुत सादा कपड़े पहने सेवा में उपस्थित हुए और सर झुकाकर अभिवादन किया। राजा साहब की ऑंखें शर्म से झुक गई, मगर कुँवर साहब का इस समय आना अच्छा नहीं लगा। गानेवालियों को वहॉँ से उठ जाने का इशारा किया।
कुंवर इन्दरमल बोले—महाराज, क्या मेरी बिनती पर बिलकुल ध्यान न दिया जायेगा?
राजा साहब की गद्दी के उत्तराधिकारी राजकुमार की इज्जत करते थे और मुहब्बत तो कुदरती बात थी, तो भी उन्हें यह बेमौका हठ पसन्द न आता था। वह इतने संकीर्ण बुद्धि न थे कि कुंवर साहब की नेक सलाहों की कद्र न करें। इससे निश्चय ही राज्य पर बोझ बढ़ता जाता था ओर रिआया पर बहुत जुल्म करना पड़ता था। मैं अंधा नहीं हूँ कि ऐसी मोटी-मोटी बातें न समझ सकूँ। मगर अच्छी बातें भी मौका-महल देखकर की जाती हैं। आखिरकार नाम और यश, इज्जत और आबरु भी कोई चीज है? रियासत में संगमरमर की सड़कें बनवा दूँ, गली-गली मदरसे खोल दूँ, घर-घर कुऍं खोदवा दूँ, दवाओं की नहरे जारी कर दूँ मगर दशहरे की धूम-धाम से रियासत की जो इज्ज्त और नाम है वह इन बातों से कभी हासिल नहीं हो सकता। यह हो सकता है कि धीरे-धीरे यह खर्च घटा दूँ मगर एकबारगी ऐसा करना न तो उचित है और न सम्भव। जवाब दिया—आखिर तुम क्या चाहते हो? क्या दशहरा बिलकुल बन्द कर दूँ?
इन्दरमल ने राजा साहब के तेवर बदले हुए देखे, तो आदरपूर्वक बोले—मैंने कभी दशहरे के उत्सव के खिलाफ मुंह से एक शब्द नहीं निकाला, यह हमारा जातीय पर्व है, यह विजय का शुभ दिन है, आज के दिन खुशियॉँ मनाना हमारा जाती कर्तव्य है। मुझे सिर्फ इन अप्सराओं से आपत्ति है, नाच-गाने से इस दिन की गम्भीरता और महत्ता डूब जाती है।
राजा साहब ने व्यंग्य के स्वर में कहा—तुम्हारा मतलब है कि रो-रोकर जशन मनाऍं, मातम करें।
इन्दरमल ने तीखें होकर कहा—यह न्याय के सिद्धान्तों के खिलाफ बात है कि हम तो उत्सव मनाऍं, और हजारों आदमी उसकी बदौलत मातम करें। बीस हजार मजदूर एक महीने से मुफ्त में काम कर रहे है, क्या उनके घरों में खुशियॉँ मनाई जा रही हैं? जो पसीना बहायें वह रोटियों को तरसें और जिन्होंने हरामकारी को अपना पेशा बना लिया है, वह हमारी महफिलों की शोभा बनें। मैं अपनी ऑंखों से यह अन्याय और अत्याचार नहीं देख सकता। मैं इस पाप-कर्म में योग नहीं दे सकता। इससे तो यही अच्छा है कि मुंह छिपाकर कहीं निकल जाऊँ। ऐसे राज में रहना, मैं अपने उसूलों के खिलाफ और शर्मनाम समझता हूँ।
इन्दरमल ने तैश में यह धृष्टतापूर्ण बातें कीं। मगर पिता के प्रेम को जगाने की कोशिश ने राजहठ के सोए हुए काले देव को जगा दिया। राजा साहब गुस्से से भरी हुई ऑंखों से देखकर बोले—हॉँ, मैं भी यही ठीक समझता हूँ। तुम अपने उसूलों के पक्के हो तो मैं भी अपनी धुन का पूरा हूँ।
इन्दरमल ने मुस्कराकर राजा साहब को सलाम किया। उसका मुस्कराना घाव पर नमक हो गया। राजकुमार की ऑंखों में कुछ बूँदें शायद मरहम का काम देतीं।



राजकुमार ने इधर पीठ फेरी, उधर राजा साहब ने फिर अप्सराओं को बुलाया और फिर चित्त को प्रफुल्लित करनेवाले गानों की आवाजें गूँजने लगीं। उनके संगीत-प्रेम की नदी कभी इतने जोर-शोर से न उमड़ी थी, वाह-वाह की बाढ़ आई हुई थी, तालियों का शोर मचा हुआ था और सुर की किश्ती उस पुरशोर दरिया में हिंडोले की तरह झूल रही थी।
यहॉँ तो नाच-गाने का हंगामा गरम था और रनिवास में रोने-पीटने का। रानी भान कुँवर दुर्गा की पूजा करके लौट रही थी कि एक लौंडी ने आकर यह मर्मान्तक समाचार दिया। रानी ने आरती का थाल जमीन पर पटक दिया। वह एक हफ्ते से दुर्गा का व्रत रखती थीं। मृगछाले पर सोती और दूध का आहार करती थीं। पॉँव थर्राये, जमीन पर गिर पड़ी। मुरझाया हुआ फूल हवा के झोंके को न सह सका। चेरियॉँ सम्हल गयीं और रानी के चारों तरफ गोल बांधकर छाती और सिर पीटने लगीं। कोहराम मच गया। ऑंखों में ऑंसूं न सही, ऑंचलों से उनका पर्दा छिपा हुआ था, मगर गले में आवाज तो थी। इस वक्त उसी की जरुरत थी। उसी की बुलन्दी और गरज में इस समय भाग्य की झलक छिपी हुई थी।
लौडियॉँ तो इस प्रकार स्वामिभक्ति का परिचय देने में व्यस्त थीं और भानकुँवर अपने खयालों में डूबी हुई थीं। कुंवर से ऐसी बेअदबी क्योंकर हुई, यह खयाल में नहीं आता। उसने कभी मेरी बातों का जवाब नहीं दिया, जरुर राजा की ज्यादती है।
इसने इस नाच-रंग का विरोध किया होगा, करना  ही चाहिए। उन्हें क्या, जो कुछ बनेगी-बिगड़ेगी उसे जिम्मे लगेगी। यह गुस्सेवर हैं ही। झल्ला गये होंगे। उसे सख्त-सुस्त कहा होगा। बात की उसे कहॉँ बर्दाश्त, यही तो उसमें बड़ा ऐब है, रुठकर कहीं चला गया होगा। मगर गया कहॉँ? दुर्गा ! तुम मेरे लाल की रक्षा करना, मैं उसे तुम्हारे सुपुर्द करती हूँ। अफसोस, यह गजब हो गयाह। मेरा राज्य सूना हो गया और इन्हें अपने राग-रंग की सूझी हुई है। यह सोचते-सोचते रानी के शरीर में कँपकँपी आ गई, उठकर गस्से से कॉँपती हुई वह बेधड़क नाचगाने की महफिल की तरफ चली। करीब पहुँची तो सुरीली तानें सुनाई दीं। एक बरछी-सी जिगर में चुभ गयी। आग पर तेल पड़ गया।
रानी को देखते ही गानेवालियों में एक हलचल-सी मच गई। कोई किसी कोने में जा छिपी, कोई गिरती-पड़ती दरवाजें की तरफ भागी। राजा साहब ने रानी की तरफ घूरकर देखा। भयानक गुस्से का शोला सामने दहक रहा था। उनकी त्योरियों पर भी बल पड़ गए। खून बरसाती हुई ऑंखें आपस में मिलीं। मोम ने लोहे को सामना किया।
रानी थर्रायी हुई आवाज में बोली—मेरा इन्दरमल कहॉँ गया? यह कहते-कहते उसकी आवाज रुक गई और होंठ कॉँपकर रह गए।
राजा ने बेरुखी से जवाब दिया—मैं नहीं जानता।
रानी सिसकियॉँ भरकर बोली—आप नहीं जानते कि वह कल तीसरे पहर से गायब है और उसका कहीं पता नहीं? आपकी इन जहरीली नागिनों ने यह विष बोया है। अगर उसका बाल भी बॉँका हुआ तो उसके जिम्मेदार आप होंगे।
राजा ने तल्खी  से कहा—वह बड़ा घमण्डी और बिनकहा हो गया है, मैं उसका मुंह नहीं देखना चाहता।
रानी कुचले हुए सॉँप की तरह ऐंठकर बोली—राजा, तुम्हारी जबान से यह बातें निकल रही हैं ! हाय मेरा लाल , मेरी ऑंखों की पुलती, मेरे जिगर का टुकड़ा, मेरा सब कुछ यों अलोप हो जाए और इस बेरहम का दिल जरा भी न पसीजे ! मेरे घर में आग लग जाए और यहॉँ इन्द्र का अखाड़ा सजा रहे ! मैं खून के आँसू रोऊँ और यहॉँ खुशी के राग अलापे जाएं !
राजा के नथने फड़कने लगे, कड़ककर बोले—रानी भानकुंवर अब जबान बन्द करो। मैं इससे जयादा नहीं सुन सकता। बेहतर होगा कि तुम महल में चली जाओ।
रानी ने बिफरी हुई शेरनी की तरह गर्दन उठाकर कहा—हॉँ, मैं खुद जाती हूँ। मैं हुजूर के ऐश में विघ्न नहीं डालना चाहती, मगर आपकों इसका भुगतान करना पड़ेगा। अचलगढ़ में या तो भान कुँवर रहेगी या आपकी जहरीली, विषैली परियॉँ !
राजा पर इस धमकी को कोई असर न हुआ। गैंडे की ढाल पर कच्चे लोहे का असर क्या हो सकता है ! जी में आया कि साफ-साफ कह दें, भान कुंवर चाहे रहे या न रहे यह परियां जरुर रहेंगी लेकिन आपने को रोककर बोले—तुमको अख्तियार है, जो ठीक समझो वह करो।
रानी कुछ कदम चलकर फिर लौटीं और बोली—त्रिया-हठ रहेगी या राजहठ?
राजा ने निष्काम  स्वर में उत्तर दिया—इस वक्त तो राजहठ ही रहेगी।



रानी भानकुंवर के चले जाने के बाद राजा देवमल फिर अपने कमरे में आ बैठे, मगर चिन्तित और मन बिलकुल बुझा हुआ, मुर्दे के समान। रानी की सख्त बातों से दिल के सबसे नाजुक हिस्सों में टीस और जलन हो रही थी। पहले तो वह अपने ऊपर झुंझलाए कि मैंने उसकी बातों को क्यों इतने धीरज से सुना मगर जब गुस्से की आग धीमी हुई और दिमाग का सन्तुलन फिर असली हालत पर आया तो उन घटनाओं पर अपने मन में विचार करने लगे। न्यायप्रिय स्वभाव के लोंगों के लिए क्रोध एक चेतावनी होती है, जिससे उन्हें अपने कथन और आचार की अच्छाई और बुराई को जॉंचने और आगे के लिए सावधान हो जाने का मौका मिलता हैं। इस कड़वी दवा से अकसर अनुभव को शक्ति संकट को व्यापकता और चिन्तन को सजगता प्राप्त होती है। राजा सोचने लगे—बेशक रियासत के अन्दरुनी हालात के लिहाज से यह सब नाच-रंग बेमौका है। बेशक वह रिआया के साथ अपना फर्ज नहीं अदा कर रहे थे। वह इन खर्चो और इस नैतिक धब्बे को मिटाने के लिए तैयार थे, मगर इस तरह कि नुक्ताचीनी करने वाली ऑंखें उसमें कुछ और मतलब न निकाल सकें। रियासत की शान कायम रहे। इतना इन्दरमल से उन्होंने साफ कह दिया था कि अगर इतने पर भी अपनी जिद से बाज नहीं आता तो उसकी ढिठाई है। हर एक मुमकिन पहलू से गौर करने पर राजा साहब के इस फैसले में जरा भी फेर फार न हुआ। कुंवर का यों गायब हो जाना जरुर चिन्ता की बात है और रियासत के लिए उसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैं मगर वह अपने आप को इन नतीजों की जिम्मदारियों से बिलकुल बरी समझते थे। वह यह मानते थे कि इन्दरमल के चले जाने के बाद उनका यह महफिलें जमाना बेमौका और दूसरों को भड़कानेवाला था मगर इसका कुंवर के आखिरी फैसले पर क्या असर पड़ सकता है? कुंवर ऐसा नादॉँ, नातजुर्बेकार और बुजदिल तो नहीं है कि आत्महत्या कर लें, हॉँ, वह दो-चार दिन इधर-उधर आवारा घूमेगा और अगर ईश्वर ने कुछ भी विवेक उसे दिया तो वह दुखी और लज्जित होकर जरुर चला आएगा। मैं खुद उसे ढूँढ़ निकालूँगा। वह ऐसा कठोर नहीं है कि अपने बूढ़े बाप की मजबूरी पर कुछ भी ध्यान न दे।
इन्दरमल से फारिग होकर राजा साहब का ध्यान रानी की तरफ पहुँचा और जब उसकी आग की तरह दहकती हुई बाते याद आयीं तो गुस्से से बदन में पसीना आ गया और वह बेताब होकर उठकर टहलनें लगे। बेशक, मैं उसके साथ बेरहमी से पेश आया। मॉँ को अपनी औलाद ईमान से भी ज्यादा प्यारी होती है और उसका रुष्ट होना उचित था मगर इन धमकियों के क्या माने? इसके सिवा कि वह रुठकर मैके चली जाए और मुझे बदनाम करे, वह मेरा और क्या कर सकती है? अक्लमन्दों ने कहा है कि औरत की आज बेवफा होती है, वह मीठे पानी की चंचल, चुलबुली-चमकीली धारा है, जिसकी गोद में चहकती और चिमटती है उसे बालू का ढेर बनाकर छोड़ती है। यही भानकुँवर है जिसकी नाजबरदारियां मुहब्बत का दर्जा रखती हैं। आह, क्या वह पिछली बातें भूल जाऊँ ! क्या उन्हें किस्सा समझकर दिल को तसकीन दूँ।
इसी बीच में एक लौंड़ी ने आकर कहा कि महारानी ने हाथी मँगवाया है और न जाने कहॉँ जा रही हैं। कुछ बताती नहीं। राजा ने सुना और मुँह फेर लिया।



शहर इन्दौर से तीन मील दूर उत्तर की तरफ घने पेड़ों के बीच में एक तालाब है जिसके चॉँदी-जैसे चेहरे से काई का हरा मखमली घूँघट कभी नहीं उठता। कहते हैं किसी जमाने में उसके चारों तरफ पक्के घाट बने हुए थे मगर इस वक्त तो सिर्फ यह अनश्रुति बाकी थी जो कि इस दुनिया में अकसर ईट-पत्थर की यादगारी से ज्यादा टिकाऊ हुआ करती है।
तालाब के पूरब में एक पुराना मन्दिर था, उसमें शिव जी राख की धूनी रमाये खामोश बैठे हुए थे। अबाबीलें और जंगली कबूतर उन्हीं अपनी मीठी बोलियॉँ सुनाया करते। मगर उस वीराने में भी उनके भक्तों की कमी न थी। मंदिर के अन्दर भरा हुआ पानी और बाहर बदबूदार कीचड़, इस भक्ति के प्रमाण थे। वह मुसाफिर जो इस तालाब में नहाता उसके एक लोटे पानी से अपने ईश्वर की प्यास बुझाता था। शिव जी खाते कुछ न थे मगर पानी बहुत पीते थे। उनकी न बुझनेवाली प्यास कभी न बुझती थी।
तीसरे पहर का वक्त था। क्वार की धूप तेज थी। कुंवर इन्दरमल अपने हवा की चालवाले घोड़े पर सवार इन्दौर की तरफ से आए और एक पेड़ की छाया में ठहर गए। वह बहुत उदास थे। उन्होंने घोड़े को पेड़ से बॉँध दिया और खुद जीन के ऊपर डालनेवाला कपड़ा बिछाकर लेट रहे। उन्हें अचलगढ़ से निकले आज तीसरा दिन है मगर चिन्ताओं ने पलक नहीं झपकने दी। रानी भानकुंवर उसके दिल से एक पल के लिए भी दूर न होती थी। इस वक्त ठण्डी हवा लगी तो नींद आ गई। सपने में देखने लगा कि जैसे रानी आई हैं और उसे गले लगाकर रो रही हैं। चौंककर ऑंखें खोलीं तो रानी सचमुच सामने खड़ी उसकी तरफ ऑंसू भरी ऑंखों से ताक रही थीं। वह उठ बैठा और मॉँ के पैरों को चूमा। मगर रानी ने ममता से उठाकर गले लगा लेने के बजाय अपने पॉँव हटा लिए और मुंह से कुछ न बोली।
इन्दरमल ने कहा—मॉँ जी, आप मुझसे नाराज हैं?
रानी ने रुखाई से जवाब दिया—मैं तुम्हारी कौन होती हूँ !
कुंवर—आपको यकीन आए न आए, मैं जब से अचलगढ़ से चला हूँ एक पल के लिए भी आपका ख्याल दिल से दूर नहीं हुआ। अभी आप ही को सपने में देख रहा था।
इन शब्दों ने रानी का गुस्सा ठंडा किया। कुँवर की ओर से निश्चित होकर अब वह राजा का ध्यान कर रही थी। उसने कुंवर से पूछा—तुम तीन दिन कहॉँ रहे?
कुंवर ने जावाब दिया—क्या बताऊँ, कहॉँ रहा। इन्दौर चला गया था वहॉँ पोलिटिकल एजेण्ट से सारी कथा कह सुनाई।
रानी ने यह सुना तो माथा पीटकर बोली—तुमने गजब कर दिया। आग लगा दी।
इन्दरमल—क्या करुँ, खुद पछताता हूँ, उस वक्त यही धुन सवार थी।
रानी—मुझे जिन बातों का डर था वह सब हो गई। अब कौन मुंह लेकर अचलगढ़ जायेंगे।
इन्दरमल—मेरा जी चाहता है कि अपना गला घोंट लूँ।
रानी—गुस्सा बुरी बला हैं। तुम्हारे आने के बाद मैंने रार मचाई और कुद यही इरादा करके इन्दौर जा रही थी, रास्ते में तुम मिल गए।
यह बातें हो ही रही थीं कि सामने से बहेलियों और सॉँडनियों की एक लम्बी कतार आती हुई दिखाई दीं। सॉँड़नियों पर मर्द सवार थे। सुरमा लगी ऑंखों वाले, पेचदार जुल्फोंवाले। बहेलियों में हुस्न के जलवे थे। शोख निगाहें, बेधड़क चितवनें, यह उन नाच-रंग वालों का काफिला था जो अचलगढ़ से निराश और खिन्न चला आता था। उन्होंने रानी की सवारी देखी और कुंवर का घोड़ा पहचान लिया। घमण्ड से सलाम किया मगर बोले नहीं। जब वह दूर निकल गए तो कुंवर ने जोर से कहकहा मारा। यह विजय का नारा था।
रानी ने पूछा—यह क्या कायापलट हो गई। यह सब अचलगढ़ से लौटे आते है और ऐन दशहरे के दिन?
इन्दरमल बड़े गर्व से बोले—यह पोलिटिकल एजेण्ट के इनकारी तार के करिश्में हैं, मेरी चाल बिलकुल ठीक पड़ी।
रानी का सन्देह दूर हो गया। जरुर यही बात है यह इनकारी तार की करामात है। वह बड़ी देर तक बेसुध-सी जमीन की तरफ ताकती रही और उसके दिल में बार-बार यह सवाल पैदा होता था, क्या इसी का नाम राजहठ है।
आखिरी इन्दरमल ने खामोशी तोड़ी—क्या आज चलने का इरादा है कि कल?
रानी—कल शाम तक हमको अचलगढ़ पहुँचना है, महाराज घबराते होंगे।

-जमाना, सितम्बर १९१२

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